राष्ट्रपति और राज्यपालों पर विधेयकों के लिए समयसीमा तय करने को लेकर प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने गुरुवार को फैसला सुनाया। CJI बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में साफ कहा कि संवैधानिक कोर्ट राष्ट्रपति और राज्यपाल पर विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा नहीं तय कर सकते। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तमिलनाडु मामले में 13 अप्रैल के 2 जजों की पीठ द्वारा दिया गया ऐसा निर्देश असंवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संवैधानिक कोर्ट राज्यपाल के सामने लंबित विधेयकों को मान्य स्वीकृति नहीं दे सकते, जैसा कि 2 जजों की पीठ ने अनुच्छेद 142 की शक्तियों का प्रयोग करते हुए तमिलनाडु के 10 विधेयकों को मान्य स्वीकृति प्रदान की थी, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर अनिश्चित काल तक अपनी सहमति नहीं रोक सकते।
5 जजों की संविधान पीठ ने 2 जजों की पीठ के इस विचार को भी खारिज कर दिया कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए रखे गए विधेयक की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट की राय लेनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की राय लेने के लिए नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने आगे कहा कि भारत के सहकारी संघवाद में राज्यपालों को किसी विधेयक पर सदन के साथ मतभेदों को दूर करने के लिए संवाद प्रक्रिया अपनानी चाहिए, न कि बाधा डालने वाला रवैया अपनाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल के पास यह विवेकाधिकार है कि वे विधेयक को टिप्पणियों के साथ सदन को लौटा दें या राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख लें। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल के इस विवेकाधिकार को कम नहीं किया जा सकता।
5 जजों की संविधान पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक रूप से राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों का अधिग्रहण नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संवैधानिक कोर्ट राज्यपालों के कार्यों पर सवाल नहीं उठा सकते, लेकिन सीमित परिस्थितियों में वे विधेयक के उद्देश्यों को विफल करने के लिए राज्यपालों की ओर से लंबे समय तक की गई निष्क्रियता की जांच कर सकते हैं और यह निर्धारित कर सकते हैं कि क्या देरी जानबूझकर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल से अनुच्छेद 200/201 के अनुसार किसी विधेयक पर अपने कार्य करने के लिए कह सकता है, लेकिन उसे उस पर सहमति देने के लिए नहीं कह सकता।
सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल से केवल सीमित जवाबदेही की मांग कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को उनके निर्णयों के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन संवैधानिक कोर्ट उनके निर्णयों की जांच कर सकता है, हालांकि कोर्ट राज्यपाल पर कोई समयसीमा तय नहीं कर सकता, सिवाय इसके कि वह उन्हें एक उचित अवधि में निर्णय लेने के लिए कहे। दरअसल, तमिलनाडु में लंबित विधायकों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए 3 महीने में विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय-सीमा तय की थी, जिसके बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के जरिए 14 सवाल पूछे थे। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि जब संविधान में समयसीमा तय करने का जिक्र नहीं है, तो क्या सुप्रीम कोर्ट को समयसीमा तय करने का अधिकार है?।
राष्ट्रपति के सवालों पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का जवाब
-अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास 3 विकल्प हैं- वह विधेयक को मंजूरी दे सकते हैं, विचार के लिए राष्ट्रपति को भेज सकते हैं या विधानसभा को वापस भेज सकते हैं
-इन विकल्पों का इस्तेमाल करने के लिए वह मंत्रिमंडल की सलाह से नहीं बंधे हैं। अगर विधानसभा उसी विधेयक को दोबारा भेज दे, तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि राज्यपाल को इसे मानना ही होगा। वह दोबारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।
-राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयक पर फैसला लेने के लिए समय सीमा में बांधना संविधान की भावना के विपरीत होगा
-राज्यपाल की तरफ से फैसला लेने में देरी को आधार बना कर सुप्रीम कोर्ट बिल को अपनी तरफ से मंजूरी नहीं दे सकता। अनुच्छेद 142 के तहत हासिल विशेष शक्ति का सुप्रीम कोर्ट ऐसा इस्तेमाल नहीं कर सकता
-किसी कानून के बनने के बाद ही कोर्ट उस पर विचार कर सकता है। राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास लंबित विधेयक पर कोर्ट विचार नहीं कर सकता
-अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल के खिलाफ कोई अदालती कार्रवाई नहीं हो सकती। अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के फैसले में कोर्ट दखल नहीं दे सकता
-अगर राज्यपाल अनिश्चित समय तक विधेयक को अपने पास लंबित रखें तो कोर्ट उनके फैसले में हो रही देरी का कारण पूछ सकता है और उसके आधार पर राज्यपाल को सीमित निर्देश दे सकता है।
-अगर कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा गया है तो वह अपने विवेक से निर्णय ले सकते हैं। उनके लिए यह जरूरी नहीं कि वह अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से उसकी राय पूछें।
-क्या केंद्र और राज्य के बीच के विवाद को सिर्फ अनुच्छेद 131 के तहत ही सुप्रीम कोर्ट में लाया जा सकता है? इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा रहा है। इस मामले में सवाल प्रासंगिक नहीं है। इसके बिना भी सभी मुख्य सवालों का जवाब दे दिया गया है।